जानें स्वामीनारायण जयंती 2024 कब है और क्या है इसका महत्व

जानें स्वामीनारायण जयंती 2024 कब है और क्या है इसका महत्व

चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पूरे देश में राम नवमी मनाई जाती है। भगवान श्री राम के जन्म को इस दिन बड़े हर्ष -उल्लास के साथ मनाया जाता है, लेकिन इसी दिन स्वामीनारायण जयंती भी मनाया जाता है। स्वामीनारायण का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। स्वामीनारायण समुदाय के सभी लोग उनके जन्म दिवस के रूप में इस दिन को मानते है। कुछ हिन्दू ग्रंथों के आधार पर माना जाता है कि स्वामीनारायण का जन्म उत्तर भारत के छप्पय गांव में हुआ था। उन्हें भगवान का ही एक स्वरूप माना जाता है। कुछ लोग ऐसा बोलते है कि उन्होंने खुद अपने आप को आज के दिन एक बच्चे के रूप में प्रकट किया था। वह एक महान तपस्वी थे। उनका उद्देश्य केवल समाज को सही दिशा प्रदान करना और हिन्दू प्रथाओं को पुनः से विकसित करना था।

स्वामीनारायण जयंती 2024 में कब है

इस वर्ष 2024 स्वामीनारायण जयंती बुधवार 17 अप्रैल, 2024 को होगी

स्वामीनारायण जयंती पूजाविधि

स्वामीनारायण जयंती के दिन प्रातः काल सुबह जल्दी उठ जाए, शुद्ध जल से स्नान करें। स्नान करने के बाद घर की भी सफाई करें और पूजा की तैयारी करें। भगवान की मूर्ति को नहलाएं और स्वामीनारायण की मूर्ति को पालने में रखें, उसे सजाए। फिर कुमकुम, चावल, अन्य पूजन सामग्री से भगवान की पूजा करें, फूल चढ़ाएं। इस दिन निर्जला उपवास भी रखा जाता है और अगर आप निर्जला का उपवास नहीं कर सकते, तो फल खाकर उपवास कर सकते हैं। पूजा के पश्चात भगवान की आरती करें, उन्हें भोग लगाएं।

स्वामीनारायण का महत्व

कहा जाता है कि भगवान स्वामीनारायण ने सन 1781 में स्वयं को रामनवमी के दिन प्रकट किया था। मान्यता है कि इस दिन भगवान का जन्म धर्मदेव और भक्तिमाता के आराध्य बच्चे के रूप में हुआ था। इसलिए भगवान की पूजा ओर भक्ति पूरी सिद्धि के साथ करना चाहिए।

स्वामीनारायण का जीवन

भगवान श्री स्वामीनारायण विक्रम संवत , 3 अप्रैल 1781 में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था। अयोध्या के पास गोंडा जिला के छापिया नामक गांव है, जहां पर स्वामीनारायण ने स्वयं को प्रकट किया था। इसी दिन राम नवमी भी थी, इसलिए बड़े ही उल्लास का माहौल था। उनके पिता का नाम श्री हरिप्रसाद तथा माता का नाम भक्तिदेवी था। उनके माता पिता ने उनका नाम घनश्याम रखा था। उस समय ज्योतिष ने उन्हें देखकर कहा था कि यह बालक लोगों को सही दिशा दिखाएगा। 

जब वह आठ साल के हुए, तो उनका जनेऊ संस्कार किया गया था। बहुत छोटी उम्र में ही उन्हें अक्षरज्ञान भी दे दिया गया था। जिस कारण कई शास्त्रों का अध्ययन उन्होंने प्राप्त कर लिया था। 11 की छोटी उम्र में ही उनके माता पिता का देहांत हो गया था और वे अकेले हो गए। उनके माता-पिता के देहांत के कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने घर छोड़ दिया था और लगभग सात सालों तक उन्होंने पूरे देश का परिभ्रमण किया। परिक्रमा के समय ही उन्होंने गोपाल योगी जी से अष्टांग योग सीखा था। उन्होंने उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम् सभी जगह का दर्शन किया। उसके बाद पंढरपुर व नासिक होते हुए वे गुजरात आ पहुंचे। 

एक दिन घनश्याम मांगरोल के पास ‘लोज’ गांव में पहुंचे थे। जहां उनकी मुलाकात स्वामी मुक्तानंद जी से हुई। मुक्तनन्द जी स्वामी रामानंद के शिष्य थे। घनश्याम जी स्वामी रामानंद को मिलने की लिए बहुत व्याकुल थे और रामांनद जी भी अपने भक्तों से कहते रहते थे कि असली स्वामी तो अब आने वाला है, मैं तो बस उसके आने के पहले का शंख बजा रहा हुं। जब घनश्याम और स्वामी रामांनद जी की मुलाकात हुई, तो रामानंद जी ने स्वामी जी स्वामी मुक्तानंद के साथ ही रहने को कहा। घनश्याम भी उनकी आज्ञा का पालन करके मुक्तनन्द के साथ रहने लगे ।

उस समय स्वामी मुक्तानंद जी महाराज कथा किया करते थे। तभी सारे स्त्री व पुरुष भी वहीं आते थे। स्वामी नारायण ने देखा कि कई कथा सुनने वाले साधुओं और पुरुषों का ध्यान महिलाओं की ओर होता है, कथा सुनने पर नहीं। वह सब देखते हुए उन्होंने महिलाओं और पुरुषों का कथा करने का स्थान अलग कर दिया। इसके अलावा उन्होंने महिला कथावाचकों को भी तैयार किया जिनका नाम नीलकंठवर्णी’ था ।

स्वामी रामानंद ने नीलकंठवर्णी को दीक्षा देकर उनका नाम ‘सहजानंद’ रख दिया। दीक्षा देने के एक साल बाद ही रामानंद जी ने जेतपुर में सहजानंद को अपने धर्म सम्प्रदाय का आचार्य पद पर आसीन कर दिया। उसके कुछ दिनों बाद स्वामी रामानंद जी का देहांत हो गया।

नीलकंठवर्णी ने गांव-गांव घूमकर सबको स्वामिनारायण मंत्र का जाप करने को कहा। स्वामी जी ने निर्धनों  की सहायता व सेवा को अपना लक्ष्य बनाकर सभी वर्गों के लोगों को अपने साथ जोड़ा। वे अपने शिष्यों को पांच व्रत लेने को कहते थे। जिसमे मांस, मदिरा, चोरी, व्यभिचार का त्याग तथा स्वधर्म के पालन की बात होती थी।

समाज का पुरुत्थान

उन्होंने यज्ञ में हिंसा, बलिप्रथा, सतीप्रथा, कन्या हत्या, भूत बाधा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। अपने जीवन का कार्यक्षेत्र का ज्यादातर कार्य वे गुजरात में ही किया करते थे। अगर कोई प्रकृति से संबंधित आपदा आए तो वे बिना भेदभाव के सबकी सहायता करते थे। भगवान स्वामिनारायण जी ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया,  इनके निर्माण के समय वे स्वयं सबके साथ श्रमदान करते थे। भगवान स्वामिनारायण ने अपने कार्यकाल में अहमदाबाद (गुजरात), मूली, भूज, जेतलपुर, धोलका, वडताल, गढ़डा, धोलेरा तथा जुनागढ़ में भव्य शिखरबध्द मंदिरों का निर्माण करवाया। यह सभी मंदिर स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। जो भी धर्म से संबंधित नियम स्वामी जी ने बनाए थे। उसका वे स्वयं भी कठोरता से पालन करते थे। भगवान स्वामीनारायण जी ने 1830 ई. में शरीर को त्याग दिया था। आज उनके भक्त और अनुयायी  विश्व भर में फैले हुए हैं। वे मंदिरों को सेवा व ज्ञान का केन्द्र बनाकर काम किया करते हैं। उनके धर्म ओर ख्याति सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में फैली हुई है।

स्वामीनारायण की आरती

जय सद्गुरु स्वामी,
प्रभु जय सद्गुरु स्वामी,

सहजानंद दयालु,

सहजानंद दयालु,
बलवंत बाहुमणि ।

जय सद्गुरु स्वामी…

चरना सरोज तम्र वंदु करजोडी,

प्रभु वंदु करजोडी,

चरन शिष धृतिथि, दुक्ख तोय ।

जय सद्गुरु स्वामी…

नारायणभक्त द्विजकुल तनु धरि,

प्रभु द्विजकुल तनु धरि,

परमार पति उदधि, अग्नित नारनारी ।

जय सद्गुरु स्वामी…

नित्य नित्य नौतम लीला,

कर्त अविनाशी,

प्रभु कर्त अविनाशी,

असत तीर्थ चरण, कोटि गाय काशी ।

जय सद्गुरु स्वामी…

पुरुषोत्तम प्रगटनु, जय दर्शन कर्शे,

प्रभु जय दर्शन कर्शे,

कां कर्मथी छथि, कुम्भ साहित तरसे ।

जय सद्गुरु स्वामी…

आ अवसार करुणानिधि,

करुणा बहू किधि,

वाही करुणा बहू किधि,

मुक्तानंद कहे मुक्ति, सुगम करि सिद्धि ।

जय सद्गुरु स्वामी…

जय सद्गुरु स्वामी, प्रभु जय सद्गुरु स्वामी,

सहजानंद दयालु,

सहजानंद दयालु, बलवंत बाहुमणि ।

जय सद्गुरु स्वामी…